Thursday, March 26, 2015

शाहबाजगढी शिलालेख :- एक विश्लेषण



          सम्राट अशोक संसार के सबसे महान राजाओं में एक है । जिस साम्राज्य पर अशोक ने राज्य किया वह भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य था । साम्राज्य के विस्तार, शासन की व्यवस्था, प्रजावत्सलता, धर्म की संरक्षता तथा हृदय की उदारता आदि के दृष्टिकोण में भारत के इतिहास में सम्राट अशोक अद्वितीय माने जाते है ।
सम्राट अशोक कालीन इतिहास पर पुराणों तथा ऐतिहासिक ग्रन्थों में काफी महत्वपूर्ण जानकारी को  लिपिबद्ध  किया गया हैं किन्तु सम्राट अशोक के द्वारा अभिलेखों में उनके जीवन से संबंधित सम्पूर्ण घटनाओं को लिखवाया गया और यह जानकारी स्पष्टताया एकदम प्रामाणिक प्रतीत होती है, यदि उनके अभिलेख उत्कीर्ण नहीं होते तो उनकी किर्ति और उनके आदर्शों से समस्त विश्व  रूबरू नहीं हो पाता , इसलिए उनके द्वारा लिखवाए गए शिलालेख वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है । सम्राट अशोक के बौद्ध अनुयायी होने के स्पष्ट प्रमाण हमें शाहबाजगढ़ी के तेरहवें शिलालेख से मिलता है । सम्राट अशोक ने धार्मिक क्रियाकलाप, कर्मकांड और अनुष्ठानों पर ज़ोर नहीं दिया उसने चरित्र तथा आचरण की शुद्धता और कर्म की पवित्रता पर बल दिया । सम्राट अशोक के एक लेख में उसने इंद्रिय विजय, विचारों की शुद्धता, कृतज्ञता और दृढ़भक्ति पर बल दिया है ।
विश्व के इतिहास में सम्राट अशोक की धर्मविजय का बड़ा महत्व है । अशोक के प्रत्यनों के फलस्वरूप ही बौद्ध धर्म संसार और विशेषकर एशिया की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया । धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी प्रचार हुआ । अशोक के तेरहवें शिलालेख के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने ऐसा अनुमान लगाया है कि अशोक के अधीन कुछ ऐसे प्रदेश भी थे जो अप्रत्यक्ष रूप में तो सम्राट अशोक की अधीनता स्वीकार करते थे,  किन्तु इन्हें स्वशासन का अधिकार प्राप्त था, जैसे यवन, कम्बौज, नाभक, नाभपत्ति, आंध्र, भीज तथ पारिद्र आदि प्रदेशों के लिए इतिहासकारों ने इसलिए अनुमान व्यक्त किया है कि यह प्रदेश यवन तथा कम्बौज राज्य संभवतः उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रदेश में, भोज पश्चिमी समुन्द्र तट अथवा बरार में और संभवतः कृष्णा नदी तथा गोदावरी नदियों के तटीय प्रदेश में स्थित थे । भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक के अभिलेखों का स्थान असाधारण है , सम्राट  अशोक के अभिलेखों में सम्राट का हृदय प्रतिबिम्बित होता है । दया, दान, सेवा आदि नैतिक आदर्शों के पोषक के रूप में सम्राट अशोक का सम्पूर्ण जीवन चरित्र हमारे समक्ष प्रकट होता है । शाहबाजगढ़ी का शिलालेख पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मरदान जिले में एक गाँव है, रॉक शिलालेख सांस्कृतिक श्रेणी में 30 जनवरी, 2004 को यूनेस्को की विश्व विरासत अंतरिम सूची में जोड़ा गया ।

शाहबाजगढ़ी अभिलेख :-
सम्राट अशोक के मिले सम्पूर्ण ऐतिहासिक अभिलेखों, साक्ष्यों से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी हमारे समक्ष उजागर होती है । इन शिलालेखों, स्तम्भलेखों तथा गुहालेखों पर अंकित ब्राह्मी लिपि थी, इससे हमें पता चलता है कि लिपि का वर्णनात्मक स्वरूप में आया तो सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि अस्तित्व में आई और ब्राह्मी लिपि ही सभी भारतीय लिपियों की जननी हैं । ब्राह्मी लिपि को सर्वप्रथम पढ़ने का श्रेय अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स प्रिंसेप को जाता है । जिन्होंने 1837 में ब्राह्मी लिपि के अक्षर दानं को पढ़ा तथा इसी के आधार पर उन्होंने स्वयं को महान कहा, किन्तु जब जेम्स प्रिंसेप ने सम्राट अशोक के अभिलेखों की लिपि ब्राह्मी को पढ़ा, तो इससे पता चलता है अकबर से भी महान राजा इस धरती पर हुआ । उसका नाम सम्राट अशोक हुआ, सम्राट अशोक का नाम इतिहास के पन्नो में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है । जब इन अभिलेखों को जेम्स प्रिंसेप ने पढे तो एक उनसुलझी पहेली सुलझा दी ।  
सम्राट अशोक के समय के इतिहास के लिए तेरहवाँ शिलालेख सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है । सम्राट अशोक के पूर्व वाले अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते है तो हम इनमें समानता पाते है किन्तु यह शिलालेख  एक नया विचार अभिव्यक्त करता है “ युद्ध तथा हिंसा के नाम के स्थान पर धम्म द्वारा विजय का । कलिंग युद्ध के युद्धोपरांत उस युद्ध में हुई हिंसा का उसे तुरंत उतना दुःख उसे नहीं था, क्योंकि प्रारम्भ के लेखों में इस तरह की कोई भी जानकारी हमें प्राप्त नहीं होती है, किन्तु बाद के अभिलेखों में इस युद्ध के तदोपरांत काफी पश्चाताप हुआ ऐसा इस अभिलेखों में सम्राट अशोक ने लिखवाया ।
धम्म के तात्पर्य के संदर्भ में अशोक के ब्राह्मण तथा श्रमण शब्दों के प्रयोग उल्लेखनीय है ।  इस प्रकार शाहबाजगढ़ी अभिलेख में निम्नलिखित पंक्तियाँ ख़ुदवाई गयी थी  :-

1.  सिंहासन पर बैठने के आठ वर्ष बाद देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा कलिंग जीता गया । डेढ़ लाख प्राणी वहाँ से बंदी बनाकर बाहर भेजे गए, एक लाख वहाँ मारे गए और उसके कई गुना मर गये ।

2.    तत्पश्चात अब कलिंग के विजिट होने पर देवताओं के प्रिय की रुची धर्मपालन ( धर्म की शुद्धि ), धर्मकर्म (धर्मानुराग ) और धर्मोपदेश में तीव्र हो गयी । कलिंग विजिट कर देवताओं के प्रिय को खेद है ।
3.     क्योंकि यह विजय कोई विजय नहीं है इसमें वध, मरण और निष्कासन होता है वह देवताओं के प्रिय के द्वारा अत्यंत वेदनीय और गम्भीरता से अनुभव किया गया । इससे भी अधिक  गंभीर देवना प्रिय के लिए वह है क्योंकि वहाँ
4.    ब्राह्मण, श्रमण या अन्य संप्रदाय या ग्रहस्थ रहते हैं । जिनमें अंग्रेजों की सेवा, माता-पिता की सेवा, गुरु सेवा, मित्र, परिचित, सहायक,
5.    ज्ञातिजनों तथा दस-भतकों के प्रति सदव्यवहार और दृढ़ भक्ति पाई जाती है । युद्ध में वहाँ आघात, वध और प्रियजनों का निष्कासन होता है । यही सब मनुष्यों की दशा होती है । फिर भी जो सुव्यवस्थित स्नेह वाले होते हैं उंकेन मिटे=र, परिचित और ज्ञातिजन संकट को प्राप्त होते हैं ।
6.    उनसे उनको आघात होता होता है । यही सब मनुष्यों की दशा होती है । यह देवताओं के प्रिय के मत में गंभीर है । ऐसा एक भी देश नहीं है जिसमें रहने वालों का किसी संप्रदाय में विश्वास न हो । इसलिए जितने लोग कलिंग में मारे गये, मरे व बंदी बनाकर ले जाये गये
7.    उनका सौवां भाग भी आज देवताओं के प्रिय के मत में घनित है । देवताओं के प्रिय के विचार में यदि कोई अपकार करे तो वह क्षम्य है वहाँ तक जहां तक क्षमा करना संभव है और जो आटविक प्रदेश देवताओं के प्रिय द्वारा विजित उसकेन राज्य में हैं उन्हें वह अनुनय द्वरा शांत करता, परिवर्तित करता है तथा अपनी कृपा के अतिरिक्त उन्हें दंड देने की अपनी शक्ति को बताता है ।
8.    देवताओं का प्रिय  उनसे कहता है कि वे अपने पूर्व कर्मों के लिए लज्जित हों नहीं तो नष्ट कर दिए जाएंगे । देवताओं का प्रिय सभी प्राणियों के अक्षय, संयम, सदाचरण और प्रसन्नता की इच्छा करता है । देवताओं के प्रिय के अनुसार धर्मविजय ही प्रमुख विजय है । यह विजय बार-बार देवताओं के प्रिय द्वारा यहाँ और सभी सीमांत राज्यों में
9.    आठ सौ योजन दूर स्थित अन्तियोक नामक यवन राजा और उस अन्तियोक के अतिरिक्त चार राजा - तुलमाय ( टालमी ), अन्तिकेन (अंटीगोनस गौनेटस ), मक (मेगास थियास ), अलिक सुंदर (इपिरस) और दक्षिण में चोल, पाण्ड्य, ताम्रपर्णी तक की गयी है । इस प्रकार राज्य, प्रदेशों, कम्बौज, नाभकों,
10.   भोजो, पिटेनीकों, आंध्रों तथा पुलिंदों में सर्वत्र देवताओं के प्रिय के धर्मानुशासन का पालन होता है । जिन स्थानों में देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुँचते वहाँ भी लोग देवताओं के प्रिय के धर्म का व्यवहार, विधान और धर्मानुशासन सुनकर धर्म का आचरण करते हैं और करते रहेंगे । इससे जो विजय प्राप्त होता है वह सर्वत्र पुनः
11.  प्रीति देने वाला होता है । धर्म विजय से प्राप्त प्रीति गाढ़ी होती है । पर यह प्राप्ति चोटी है क्योंकि देवताओं कक प्रिय परमार्थ को ही महाफल मानता है । इस निमित्त यह धर्मलिपि अंकित कराई गयी कि मेरे पुत्र, पौत्र जो इसको सुने वे नया विजय न करें । अगर उन्हें शास्त्र विजय करना ही पड़े तो शांति और लघुदंडता का अनुसरण कर उसमें आनंद ले । वे धर्म विजय
12.  को ही विजय माने । वही इहलौकिक और पारलौकिक सुख का कारण है । उद्यम में ही उन्हें आनंद हो क्योंकि वह  इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए कल्याणकारी होता है
इस प्रकार के आदेश सम्राट अशोक ने अपने शाहबाजगढी वाले शिलालेख में खुदवाए ।
 सम्राट अशोक के शिलालेखों का महत्व :-
अशोक के शिलालेखों का प्राचीन भारतीय इतिहास में बड़ा महत्व हैं । इनसे अशोक के जीवन और कार्यों का पूर्ण विवरण है । इन्हीं लेखों के द्वारा अशोक के मन संबंधी बातों को भी जाना गया है । इन लेखों के द्वारा अशोक के मन संबंधी बातों को पता चलता है कि कलिंग-युद्ध से पूर्व अशोक की क्या स्थिति थी? इन्हीं लेखों के माध्यम हम कलिंग युद्ध की भयंकरता और उसका अशोक पर प्रभाव, अशोक के द्वारा बौद्ध धर्म अपनाया जाना तथा उस धर्म के प्रचार के लिए अपनाए गये साधनों का पता चलता है। इतना ही नहीं अशोक ने अपनी राज्य-संबंधी नीति में क्यो परिवर्तन किये, उसका पड़ोसी और विदेशी राज्यों से कैसा संबंध था आदि बातों की जानकारी हमें उनके शिलालेखों से मिलती है । इन शिलालेखों से यूनानी राजा जो अशोक के समकालीन था, का भी विवरण मिलता है । फिर इन्हीं से उसके राज्य विस्तार का पता चलता है । इनमें से भगवान बुद्ध के जन्म स्थान और उनके जीवन से संबन्धित अन्य स्थानों का पता चलता है । इन्हीं से ही हमें अशोक के आदर्श राजा होने का ज्ञान होता है । वास्तव में अशोक की महानता उसकेन शिलालेखों से ही जानी जा सकती है।

कला की दृष्टि से भी अशोक के शिलालेख बड़े महत्वपूर्ण माने जाते है । इन लेखों को अंकित करने के लिए अनेक स्तम्भ, शिलाएँ और गुफाएँ बनाई गयी । शिलाओं, स्तंभो और गुफाओं के निर्माण से वास्तुकला आदि के विकास को बड़ा प्रोत्साहन मिला । स्तम्भों के आधार में मोरों की तथा शीर्ष पार सिंह, बैल आदि पशुओं की आकृतियाँ बनाई गयी । शिलाओं, स्तंभो और गुफाओं के निर्माण से वास्तुकला आदि पशुओं की आकृतियाँ बनायी गई । फलस्वरूप मूर्तिकला और चित्रकला की उन्नति हुई । इस प्रकार सम्राट अशोक के काल में कला के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई । इसलिए शाहबाजगढ़ी का शिलालेख अपने आप में एक श्रेष्ठ स्थान रखता है  

Tuesday, March 24, 2015

बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्मों में महिला का स्थान :- एक विश्लेषण



           
            विश्व पटल के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य अर्थात स्त्री और पुरुष को देखा जाए तो जनसंख्या का समानुपात दोनों का है फिर भी हमारा समाज पितृसतात्मक है, पितृसतात्मक समाज होने से स्त्रियाँ हमेशा पुरुषों के अधीन रही है  ।  जब मनुष्य श्रेष्ठ बना, तब  धर्म ने ही उन्हे श्रेष्ट बनया तथा नारी को हीन, धर्म हमारे मन में धर्मभीरुता, श्रद्धा, भय करना सिखाता है, और उसके लिए हमें कई बाध्य नही करता है, वह हमारे स्वयं के मन में उत्पन्न एक अवस्था होती है । किन्तु जब हम राज्य के विधि संचालित होते है तो वह डर  एक निश्चित समय के लिए होता है । 
            हमारा सम्पूर्ण आचरण धर्म, समाज, सभ्यता के इर्द-गिर्द घूमता है धर्म ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा कारक है जो हमारे जीवन को नियंत्रित करता है । प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा काफी खराब थी, प्राचीन भारतीय वैदिक धर्म में नारी की बुरी स्थिति का पता इस बात से लगाया जा सकता हैं । प्राचीन भारत में हम स्त्रियॉं की बात करते है तो भारत के मूलनिवासियों की सामाजिक स्थिती बहुत अच्छी थी और उसमें स्त्रियॉं की दशा काफी उन्नत थी हमारे समाज में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी । किन्तु आर्यों के आक्रमण के पश्चात लोगों को गुलाम बना दिया गया । और उनके ऊपर दासता का बोझ लाद दिया गया । इसमें जिस तरह यहाँ के मूलनिवासीयों को गुलाम बनाया गया वैसे ही यहाँ की महिलाओं को गुलामों की तरह जीवन जीने पर मजबूर कर दिया गया । किन्तु वर्तमान समय में वैदिको की पीड़ियाँ यह तर्क देते हैं कि वैदिक काल में स्त्रियॉं को पढ़ने का अधिकार था जैसे गार्गी, मैत्रेयी आदि । किन्तु यह उदाहरण जो महिलाओं के वैदिक ग्रन्थों में मिलते है ये महिलाएं संभवत जिस ऊंच-नीच, जाति आधारित समाज को बनाया ब्राह्मण समाज की रही होगी, क्योंकि उस समय पढ़ने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों ने अपने पास रखा था । वैदिक काल में स्त्रियॉं के अधिकारों में कमी आ गयी थी । इस काल में सभी स्त्रियॉं के अधिकारों में कमी आ गयी थी, इस काल में उनको संपति के अधिकार से वंचित तो किया ही गया और इस के साथ स्त्री अपने पिता की पितृदाय वस्तु की अधिकारिणी भी नहीं हो सकती थी, उस स्त्री के साथ अगर कुछ गलत हुआ है तो वह संपति उसके पति या पिता की हो जाती थी, इस काल में कन्या का जन्म दुःखकर माना जाता था और इसके साथ इस काल में बहुविवाह का प्रचलन हो गया था ।
            वैदिक पूजा-पाठ में इंद्रिय-लोलुपता का विशेष स्थान था वेदिकों को श्रेष्ठ देवता मद्यपान एवं बड़ा व्यभिचारी था, वेदिक अनुष्ठानों में एक यज्ञ होता था, जिसमें लैंगिक प्रकिया की पूजा होती थी जिसमें ही बाद में में महादेव पूजा के नाम से पुरुष लिंग को मान्यता दी । वैदिक काल में स्त्रियोंको नीची नज़रों से देखा जाने लगा था इस बात का स्पष्ट प्रमाण हमें “ अनभिरती जातक में मिलता है कि स्त्रियाँ पानी की प्याऊ की तरह सभी के उपभोग करने  की वस्तु हैं । वैदिक धर्मशास्त्रों ने स्त्री को इस प्रकार स्थान दिया है कि स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती है, कौमारवस्था में उसका पिता उसकी रक्षा में, यौवन में पति की और वृद्धावस्था में पुत्रों की रक्षा में रहना उचित बताया हैं । यदि पति ने केवल कन्याएँ उत्पन्न की है या पतिभक्ति के विरुद्ध आचरण किया है तो उसका पति उसको त्याग सकता है । 
 अनुशासन पर्व में एक बात स्पष्ट है विदेह नरेश जनक की पौत्री सुकृति का कहना है “ कि धर्मग्रंथों का यह फतवा प्रसिद्ध है कि जीवन के किसी भी क्षेत्रों में स्त्रियाँ स्वतन्त्रता का उपयोग करने के लिए नहीं है । उच्चकुलोत्पन हो और सौंदर्ययुक्त भी हो तब भी स्त्रियाँ अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए तत्पर रहती है । एक स्त्री से बदकार कोई दूसरी पापिन नहीं है, इस तरह की बातों का वर्णन वैदिक धर्म ग्रन्थों में वर्णन मिलता हैं ।
इसके पश्चात जैन धर्म ग्रन्थों के आधार पर जैन धर्म में स्त्री की स्थिति का वर्णन करते है । जैन धर्मशास्त्र योगशास्त्र में यह वर्णन मिलता है कि स्त्रियाँ नरक की और जाने वाली सड़क पर जलने वाले प्रदीप हैं ।
 फिर दूसरे ग्रंथ उत्तराध्ययन सुत्त के अनुसार स्त्रियाँ वे राक्षसनियां है जिनकी छाती पर मांस के दो ढेर उगे होते है जो लगातार आदमियों को निरंतर अपने जाल में फँसा लेती हैं । और इसके बाद वे उनके साथ ऐसा खिलवाड़ करती है जैसे वे उनके गुलाम हो ।
ईसाई धर्म  में स्त्री को लेकर यह विचार है कि एक फ्रांसीसी ईसाई-पादरी के “पवित्र धार्मिक मार्ग-दर्शिका ” में लिखा है, स्त्री क्या है ? संत जेरोम का उत्तर था वह शैतान का प्रवेश द्वार है वह पाप की और ले जाने वाली सड़क है । वह बिच्छू का डंक है । अन्यत्र एक दूसरे स्थान पर संत जेरोम ने कहा है की स्त्री आग, पुरुष रस्सी और शैतान फ़ौकनी हैं ।”
संत मैक्सिमस ने स्त्री के बारे में यह कहा है कि वह आदमियों को उजाड़ देता है वह एक हत्यारी है जो आदमियों को गुलाम बना देती है । वह एक शेरनी है जो अपनी छाती से लिपटा देती है वह एक जलपरी है जो आदमी को विनाशोंन्मुख ले जाती है वह एक दुष्ट विकृत पशु है ।
इस्लाम धर्म में भी स्त्री की स्थिति भी कोई विशेष ठीक नहीं है है क्योंकि उनको प्रसिद्ध पवित्र मस्जिद में जाने की मनाही होती हैं । इस्लाम धर्म में एक पुरुष को धर्मसम्मत बताकर बहुविवाह करने की आजादी दी जाती है । उनका दायरा सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित था । वर्तमान समय में इस्लाम धर्म में यह प्रथा मौजूद है कि स्त्रियों का खतना किया जाता है । जिससे उस महिला को सारी उम्र समस्या का निर्माण होता है ।
समाज में महिलाओं को लेकर जितनी भी अराजकता बड़ रही है उसकी कही न कही शुरुआत बचपन में मिलने वाले संस्कारों से होती है, और संस्कार धर्म के ऊपर निर्भर करते है । बचपन से स्त्री और पुरुष को लेकर ही  माता-पिता बच्चों में सही संस्कारों की निर्मिति करें तो वर्तमान का जो असंतोष स्त्री को लेकर है वह नहीं होगा ।
स्त्री का उसके शरीर के आधार पर शोषण किया जाता रहा है और वर्तमान में भी हो रहा है शोषण में प्रथमतया भ्रूण में ही नष्ट कर दिया जाता है और असमय जन्म लेने पर सड़क पर या कचरा पात्र में फेंक दिया जाता है तथा वयस्क होने पर सिर्फ लड़की होने के कारण जीवन के हर मोड़ पर उलाहना सहनी पड़ती है । स्त्री देह व्यापार यह वर्तमान समय में मानवीय जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी हैं । वर्तमान समय में किए गए शोधों के माध्यम से पता चलता है कि भारत देश में हर तीन मिनट में एक बच्चे का अपहरण कर लिया जाता है जिसमें लड़कियों की संख्या ज्यादा होती हैं ।
बौद्ध धर्म में स्त्री को स्थान :-
भगवान बुद्ध द्वारा प्रदत्त धम्म का प्रचार-प्रसार वैश्विक स्तर पर हुआ और इसका मूल कारण इसी में निहित था कि उनके धम्म में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं था । सभी लोगों के लिए धम्म में जाने के लिए सदैव खुला था । कोई भी व्यक्ति धम्म में प्रवजित हो सकता था , किन्तु इस समय समाज इतने बुरे दौर से गुजर रहा था कि स्त्रियों को दासता का जीवन निर्वहन करना पद रहा था  जब बौद्ध संघ की निर्मिति हुई उसके थोड़े समय पश्चात माता महाप्रजापति गौतमी ने स्त्रियों के लिए प्रवजित होकर भिक्षुणी जीवन के लिए भगवान बुद्ध से याचना की तथा आनंद की अध्यक्षता में प्रथम भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई, तत्पश्चात महाप्रजापति गौतमी प्रथम बौद्ध संघ में प्रवजित होने वाली पहली महिला थी । और जिन भिक्षुणीयों ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात उनके पूर्व एवं बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात के अनुभवों एवं उद्गारों को बौद्ध धर्म की साहित्यक कृतियों में स्थान दिया है उस प्रसिद्ध कृति का नाम थेरीगाथा है । थेरीगाथा को खुद्द्क-निकाय के 15 ग्रन्थों में स्थान दिया है । थेरीगाथा में 73 भिक्षुणीयों के 522 गाथाओं को जो उन भिक्षुणियों ने प्रकट किया है ।
जीवन की विषमताओं पर अपनी विजय का ही वे गान करती है ।“ विष अमिरत करि ढ़ारा ” । विजय प्राप्ति की अवस्था में उनका यह उद्गार फूट पड़ता है, “ अहो ! मैं बुद्ध की  कन्या हूँ । ” उनके मन और हृदय से उत्पन्न ।
नारी जीवन को भगवान बुद्ध की अनुकंपा का कितना बड़ा भाग मिला था । बौद्ध धर्म की भिक्षुणी स्त्रीत्व को सत्य प्राप्ति में बाधक नहीं मानती । उनमें से एक भिक्षुणी के उद्गार दृष्टव्य हैं ।
“ इत्थी भावो नो किं कयिरा, चित्तम्हि सुसमाहिते ।
आणम्हि वत्तमानम्हि, सम्मा धम्म विपस्सतों ।।
 “ जब चित्त अच्छी तरह समाधि में स्थित है, ज्ञान नित्या विद्यमान है और अंतज्ञानपूर्वक धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है , तो स्त्रीत्व इसमें हमारा क्या करेगा ? ।।
इस प्रकार से सम्पूर्ण थेरीगाथा में भिक्षुणियों के उद्गार हैं । जो इस प्रकार हैं ।
अड्ड्काशी :- अड्ड्काशी का वाराणसी के वैभव सम्पन्न सेठ परिवार में हुआ , किन्तु किसी अपराध की निर्मिति होने से राजगृह में जाकर वैश्या हो गई । एक दिन भगवान बुद्ध के उपदेश सुनकर वह बौद्ध धर्म में प्रवजित हो गयी । बौद्ध धर्म में प्रवजित होने के पश्चात अर्थात भिक्षुणी होने के पश्चात उसके उद्गार  निम्न है ।
जितनी समस्त काशी-राज्य की एक दिन की आय है, उतना ही मेरा एक रात का शुल्क था, उतना ही मूल्य उससे कम नहीं, निगम के द्वारा मेरी सेवाओं के लिए पारिश्रमिक स्वरूप निश्चित था ।
किन्तु ऐसा वह अड्ड्काशी कह रही है कि वह सौंदर्य ही आज मेरे लिए घृणा का कारण हुआ ।
इसी प्रकार विमला भिक्षुणी  वह भी  वैशाली में पैदा हुई गणिका थी । वह भी एक वैश्या की पुत्री थी । एक दिन उस विमला ने महामौगल्यायन को देखा, तो वह विमला थेरी उनके रूप सौंदर्य पर मोहित हो गयी,  तथा अपने रूप  से स्थविर को लुभाने की चेष्टा की, स्थविर ने इसके लिए फटकारते हुए धर्मोपदेश दिया । भिक्षुणी बनने के पश्चात विमला थेरी पूर्व जीवन का वर्णन करती हुई कहती है तथा भिक्षुणी जीवन में निर्वाण पद की अनुगामी बनकर उस श्रेष्ठ पद को वह प्राप्त करती है । इसी प्रकार  सोणा थेरी के उद्गार हमें मिलते है वह कहती है कि रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार और विज्ञान के मिलन-क्षेत्र के इस शरीर में, मैंने दस पुत्रों को जन्म दिया । फिर दुर्बल एवं जीर्ण होकर  एक भिक्षुणी  के पास गई । उसने मुझे स्कन्ध, आयतन और धातुओं का उपदेश दिया । इसके पश्चात सोणा थेरी ने निर्वाण पद प्राप्त किया । आगे हमें थेरी गाथा में पटाचारा थेरी का वर्णन मिलता है, पटाचारा थेरी का भी गृहस्थ जीवन दुःखमय था, गृहस्थ जीवन के दुःख प्रपंचों कष्टों से वह गुजरी थी, संघ में प्रविष्ट होने के पश्चात जीवन की सही सच्चाई से वह परिचित हुई और निर्वाण पद की अनुगामी बनी ।

इस प्रकार सम्पूर्ण थेरीगाथा में भिक्षुणियों ने अपने पूर्व जीवन के कटु एवं दर्दनाक घटनाओं का विवरण दिया है तथा भिक्षुणी जीवन को ग्रहण करते ही वे जीवन में जो कुछ सत्य है उस सत्य को स्वीकार किया तथा अपनी मन की समस्त तृष्णाओं पर पूरी तरह नियंत्रण किया । सम्पूर्ण बौद्ध शिक्षाएँ मानव जाति के हित में ही है उन्हें बस करने की जरूरत है तो वह है अपने जीवन में उतारने की ।

Monday, March 23, 2015

बौद्ध धर्म और अहिंसा का स्वरूप :- एक स्वरूप

बौद्ध धर्म और अहिंसा :- एक विश्लेषण

सम्पूर्ण जगत में हमें अगर शांति स्थापित करनी है या अमन चैन कायम करना हो तो उसमें हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन कर सकते हैं । अहिंसा का सामान्य अर्थ है “ हिंसा न करना  ” । इसका व्यापक अर्थ हैं – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुंचाना । मन में किसी का अहित ना सोचना किसी को कटु वाणी के द्वारा भी नुकसान न पहुंचाना । कर्म से भी किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ।
शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती हैं । ऐसी हिंसा का न होना अहिंसा कहलाती है । अहिंसा के 3 रूप है जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है, वाणी से कष्ट न करना वाचिक अहिंसा है । तथा किसी का मन से बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है, हमें मनसा, कर्माणा तथा वाचा तीनों रूप की हिंसा से बचना चाहिए । आज के समय में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने से लिया जाता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ती है । अहिंसा को परमधर्म भी कहा जाता है इसमें मन के सभी वैर, भय और आशंकाएं दूर हो जाती है । भगवान बुद्ध के समय समाज में जिस तरह की परिस्थितियां थी वे बहुत भयावह थी, बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव से पूर्व अर्थात ऋग्वेदयुगीन भारत में हिंसा का स्वरूप ज़ोरों से था, प्राचीन वैदिक युगीन पंडितों ने आडंबरवाद, पोंगापंडितवाद, यज्ञ, निरीह जानवरों की हत्या आदि कई शर्मनाक बातों को स्थान दिया, प्राचीन वेदों में यह बताकर जानवरों की हत्या, नरबलि  आदि  दी जाती थी की यह सब देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए दी जाती है । इस तरह का शोषण प्राचीन समय में  किया जाता था । इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह कोरी काल्पनिक, मिथ्या बात हमें प्रतीत होती है । हिंसा के नाम पर वैदिक ब्राह्मण, यज्ञ का आयोजन करते समय जंगलों से कई तरह के पेड़ों को कट देते थे । पूर्ववैदिक युग कि साधना यज्ञ-विधानात्मक थी, यह सुविदित है । यज्ञ का स्वरूप क्या है, अक्सर प्रचलित आधुनिक दृष्टि के अनुसार आदिम युग के धर्मों में यज्ञ बलिदान और जादुई अनुष्ठान का समवेत रूप था । देवता को मनुष्यवत मानकर उसे प्रसन्न करने के लिए बलिदान दिया जात आता और उसके अनुष्ठान में जादुई शक्ति मनी जाती थी । वैदिक-यज्ञ में बलि गोरस, अनाज से बने अन्न, सोम अथवा पशु की हो सकती थी और उसे अग्नि में डालकर देवता को अर्पित किया जाता था ।   इसी प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा सम्पन्न किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ में अश्व को स्त्री के संभोग करवाया जाता था इसमें असहनीय पीडा उस स्त्री को होती थी उस पीड़ा में कई बार तो स्त्रियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी, उनके यज्ञ करने से जो धुआँ निकलता था उससे हजारों जीव-जन्तु भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे, इस प्रकार प्राचीन समय में हिंसा के प्रति-रूप मौजूद थे, बलहीन, आधारहीन  मनुष्यों के ऊपर भी शास्त्रसम्मत बनाकर हिंसा की जाती थी जिसका साक्ष्य हमें ऋग्वेद के दशम मण्डल  पुरुषसूक्त  के  सुत्त में  मिलता है, इन सूक्तों की भाषा छांदश भाषा थी :-
                        ब्राह्मण उसका मुख था, बाहें राजन्य बनीं ।
                                    उरु उसके वैश्य, पैरों से शूद्र जन्मा ।। 12 ।।
इस प्रकार की ऋचाओं को स्थायित्व रूप प्रदान करके कमजोर और बेसहारा लोगों के ऊपर हिंसा को अवतरित किया गया । इसमें  ब्राह्मण को ब्रह्म के मुख से, क्षत्रिय को उसके भुजाओं से, वैश्य को उसकी जंघाओं से, तथा इन सब की सेवा करने के लिए शूद्र का जन्म पैरों से हुआ, ऐसा वेदों में वर्णन मिलता हैं । हिंसा को इस प्रकार वैदिक धर्म में धर्मसम्म्त बना दिया गया, शूद्रों के साथ  अत्याचार और हिंसा को भी स्थायित्व प्रदान किया गया । जिस प्रकार प्राचीन समय में कई प्रकार की  हिंसा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दी जाती थी वर्तमान समय में हमें कई प्रकार के उदाहरण मिलते है, जैसे नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में और गुवाहाटी के कामाख्या देवी मंदिर में हजारों बेगुनाह निरीह बेजुबान जानवरों की निर्मम एवं बर्बर  तरीके से हत्या कर दी जाती हैं।
इसी प्रकार विश्व के अन्य धर्मों में भी जीव-हत्या की जाती है वे सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के नित्य-प्रतिदिन पशुओं की हत्या करते है और वे इसे अपने धर्म-ग्रन्थों से जोड़ते है और तर्क देते है कि ऐसा हमारे धर्म में लिखा गया हैं ।
बौद्ध धर्म में अहिंसा का स्वरूप :-
 भगवान बुद्ध अपने प्रारम्भिक उपदेशों में यह बात स्पष्ट करते है कि व्यक्ति कोई भी कर्म चाहें वह अच्छा हो या बुरा हो वह कर्म उस मनुष्य की तृष्णा का परिणाम होता है । बौद्ध धर्म में बताया गया है हमारे मन में अच्छे संकल्प होने चाहिए, हमारे कर्म सम्यक होने चाहिए किसी दूसरे व्यक्ति को उनसे कोई कष्ट नहीं होना चाहिए । तथा इसी के साथ हमारी वाणी भी सम्यक होनी चाहिए उसे सुनकर किसी दूसरे मनुष्य को कष्ट नहीं होना चाहिए । बौद्ध धर्म के अनुसार बुरा सोचना या मन में किसी के लिए द्वेष रखना किए गए कर्म से घातक होता है । बुरा सोचना भी एक प्रकार की हिंसा का एक प्रतिरूप हैं । इस प्रकार मन का उदाहरण हमें धम्मपद में मिलता है ।
                        मनोपुब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया
                        मनसा च पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा
                        ततो न दुःखमन्वेति, चक्क व वहतों पद ।। 1 ।।
                       
                        मनोपुब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया
                        मनसा च पसन्नेंन, भासति वा करोति वा
                        ततो च सुखमन्वेति, छाया व अनपायिनी ।। 2 ।।
इस प्रकार धम्मपद की गाथाओं से यह स्पष्ट होता है कि जो मनुष्य दूषित मन से जो कुछ भी बोलता है या करता है मनःकर्म, वाचकर्म तथा कायकर्म से भी कुछ गलत कार्य करता है उन अकुशल कर्मों से उत्पन्न दुःख उस मनुष्य का उसी तरह पीछा करता है, जैसे किसी बैलगाड़ी का पहिया गाड़ी में जूते हुए बैलों के पैरों का पीछा करता हैं ।
इसी प्रकार कुशल कर्मों से उत्तपन सुख उसका उसी प्रकार पीछा करता रहता है, जैसे निरंतर साथ रहने वाली मनुष्य की छाया उसका पीछा किया करती है  । इस प्रकार बौद्ध धर्म का पवित्र ग्रंथ इस बात की शिक्षा से प्रारम्भ होता है कि व्यक्ति अकुशल कार्यों को अपने मन में उत्पन्न होने पर ही सम्पन्न करता है ।   
 इसी प्रकार बौद्ध धर्म में अहिंसा के प्रतिरूप को लेकर सम्पूर्ण बौद्ध धर्म में हिंसा को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया हैं । त्रिपिटक में   दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त  में अहिंसा के स्पष्ट किया गया हैं ।
इसमें भगवान बुद्ध ने श्रमण गौतमको दूसरे संप्रदायों के ब्राह्मणों से अलग रखा है । भगवान बुद्ध बताते है कि श्रमण गौतमकिसी बीज या प्राणी के नाश से विरत रहते है । कच्चे अन्न ग्रहण से विरत रहते है तथा कच्चे माँस के ग्रहण से विरत रहते है इसी प्रकार भगवान कहते है कि कितने ब्राह्मण (ग्रहस्थों के द्वारा ) श्रद्धापूर्वक दिये गए भोजन खाकर इस प्रकार के सभी बीजों और सभी प्राणी के नाश में लगे रहते हैं । जैसे मूल बीज (जिनका उगना  मूलबीज से होता है, स्कन्धबीज ( जिनका प्ररोह गांठ से होता है, जैसे- ईख ) फलबीज और पांचवा अग्रबीज ( ऊपर से उगता पौधा) इस प्रकार श्रमण गौतम बीज और प्राणी का नाश नहीं करते ।
इसी प्रकार अहिंसा को लेकर भगवान बुद्ध ने जो बौद्ध धर्म का संविधान है उसमें अहिंसा को स्पष्ट किया जो इस प्रकार हैं ।
विनय पिटक के अंतर्गत कई सारे नियमों का संकलन किया गया है जिनमें पाराजिक के अंतर्गत मनुष्य हत्या का नियम है । इस नियम के अंतर्गत जो भिक्खु मनुष्य को प्राण से मारे या स्व-हत्या  के लिए हथियार खोज लाए, या चित्त संकल्प से अनेक प्रकार से मरने की जो  तारीफ करें, या मरने के लिए प्रेरित करें तो  वह भिक्षु पाराजिक का दोषी होता है, वह भिक्षु अन्य भिक्षुओं के साथ सहवास करने के अयोग्य होता है ।
दूसरे नियम के अंतर्गत संघादिसेस आता है इसमें आवास को लेकर नियम है कि हमें हमारे आवास ऐसे जगह व इस प्रकार उनकी निर्मिती करनी चाहिए जिसमें जीव हिंसा न हो ।
अहिंसा को स्पष्ट करते हुए अगले नियम पाचित्तिय में भगवान बुद्ध स्पष्ट करते है कि जो भिक्षु जमीन खोदता है या खुदवाता है उस जमीन को  खोदने पर उसमें कई जीवों की अकाल मृत्यु हो जाती है । (10)
तृण, वृक्ष आदि के गिराने में पाचित्तिय का दोष लगता है, क्योंकि उन पेड़-पौधो के नीचे गिरने से उन में रहने वाले जीव, पशु, पक्षियों का जीवन इस प्रकार नष्ट हो जाता है इसलिए जो भिक्षु इस प्रकार के कार्य करता है उसको पाचित्तिय का दोष लगता हैं । (11)
आगे भगवान बुद्ध अपनी शिक्षाओं को भिक्षुओं के लिए नियमस्वरूप वर्णित करते है कि हरी घास पर खड़ा होना पाचित्तिय का दोषी होता हैं । क्योंकि उस हरी घास पर खड़े होने से उस घास में रहने वाले काफी असंख्य जीव मर जाते हैं । (19)
आगे भगवान बुद्ध कहते है कि जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी सहित पानी से, तृण (घास) या मिट्टी को सींचे या सिंचवाए, उसे पाचित्तिय का दोष लगता हैं । क्योंकि ऐसा करने से उस जमीन में रहने वाले जीव उसमें दबकर मर जाते है । (53)
जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी एवं जीव को मारे, तो उसे पाचित्तिय है । इस प्रकार यह हिंसा को नियंत्रित करने के लिए भगवान बुद्ध द्वारा बनाया गया नियम था । (61)
इस प्रकार पाचित्तिय के अंत में कोई बौद्ध भिक्षु जानकार प्राणी युक्त जल को पीए तो उसे पाचित्तिय  है । इस प्रकार वह भिक्षु जाने अनजाने में हिंसा करता है इसलिए भगवान बुद्ध ने पाचित्तिय का नियम बनाया । (62)

इस प्रकार आगे सेखीय में अहिंसा का प्रतिरूप देखने को मिलता है जो इस प्रकार है :-
निरोग रहते खड़े-खड़े पिसाब-पाखाना नहीं करना चाहिए इससे हरियाली को नुकसान पहुंचता है तथा उसमें रहने वाले जीवों को अकाल मृत्यु का शिकार होना पड़ता हैं । (73)
निरोग रहते हुए पानी में पिसाब-पाखाना नहीं त्यागना चाहिए इस प्रकार का आचरण करने पर वह भिक्षु सेखीय का दोषी होता है । इस प्रकार भगवान बुद्ध ने अहिंसा को लेकर भिक्षुओं और उपासकों के लिए नियम बनाए । जिससे समाज में एक नई क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ और जो समाज अपनी मुक्ति के लिए वर्षों से छट-पटा रहा था, और उस समाज को भगवान बुद्ध ने जीने का नया आधार प्रदान किया । इस प्रकार विनय-पिटक  में महावग्ग में भी अहिंसा का पालन करने के नियमों का वर्णन मिलता है , जो इस प्रकार है :-
सिंह, व्याघ्र, चीते के चर्म को अपने शरीर पर धरण करने का भगवान बुद्ध ने निषेध किया है जो इस प्रकार उस चर्म को धारण करने का अपराध करता है वह भिक्षु दुक्कट का दोषी होता है ।
आगे वर्णन मिलता है कि मनुष्य का माँस नहीं खाना चाहिए ( लोग अकाल के कारण हाथी, घोडा, साँप, कुत्ता, भालू, सिंह, बाघ, लकड़बग्घा का माँस खाते थे) किन्तु इस तरह के जीव जंतुओं के माँस का निषेध भगवान बुद्ध ने किया ।
जानबूझकर  अपने प्राणों के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के प्राणों को लेना , यह कार्य भी भिक्षु नियम सहिंता के विपरीत आचरण हैं ।
 भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही मांस खाने की मनाही की थी किंतु कई लोग भी उन पर यह आक्षेप लगाते है की भगवान ने अपने अंतिम समय मे चुंद लुहार के घर मांस खाया था किंतु यह बात पूरी तरह बौद्ध धर्म पर कालिख पोतने जैसी है, क्योंकि पहली बात भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही जीव हत्या प्राणी ह्त्या का विरोध किया, तथा उसे अपने धर्म मे कोई स्थान नही दिया।   
           बौद्ध धर्म मे भिक्षावृति के रूप मे तीन घर का नियम है। अगर आपको पहले घर में मांस दूसरे में भी मांस एवं तीसरे घर  मे भी मांस मिलता है, और आपको पता नही है तो खा सकते है किंतु जानबूझकर पता होने बाद मांस ग्रहण करते है तो आपको त्रिकोटिपरिशुद्धि  का नियम लगेगा ।                         
            इसी प्रकार भगवान बुद्ध चुंद लुहार के घर जाते है तो चुन्द लुहार उन्हें  “ सुकरमद्दव ” नामक वनस्पति खाने के लिए परोसता है, तो सुकर मद्दव एक तरह की पानी मे उगने वाली वनस्पति होती है, क्योंकि उस समय भगवान बुद्ध वृद्ध  हो गए थे इसलिए उनको चुंद ने कोमल वनस्पति को बनाया, उसको ग्रहण करते ही भगवान ने कहा हे चुंद ! यह बहुत कड़वी है अतः इसे जमीन मे गाढ़  दो,  इस  प्रकार सिद्ध होता है कि सुकरमद्दव एक प्रकार की जंगली वनस्पति थी ।  अगर यह  सूअर का मांस होता तो पालि परंपरा में मांस शब्द के लिए मंस शब्द आया है तो स्पष्ट है की यहाँ पर सुकर मंस शब्द प्रयोग करने मे अतिशयोक्ति न होती ।    
                          इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस प्रकार से हिंसा को वैदिक धर्म ग्रंथो मे स्थान दिया गया । उसी प्रकार बौद्ध धर्म में  भगवान बुद्ध ने  अहिंसा की शिक्षा को  सम्पूर्ण बताया । सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में  अहिंसा का हमें वर्णन मिलता है इसलिए  वर्तमान समय में अन्य धर्मो के ग्रंथो को ध्यान में रखते हुये बौद्ध धर्म ग्रंथो की शिक्षा को समाज में फैलाने की जरूरत है तभी आज का मनुष्य सही मायने में प्रगति करेगा। बौद्ध धर्म सभी कष्टों का निवारण दाता है ।