Thursday, March 26, 2015

शाहबाजगढी शिलालेख :- एक विश्लेषण



          सम्राट अशोक संसार के सबसे महान राजाओं में एक है । जिस साम्राज्य पर अशोक ने राज्य किया वह भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य था । साम्राज्य के विस्तार, शासन की व्यवस्था, प्रजावत्सलता, धर्म की संरक्षता तथा हृदय की उदारता आदि के दृष्टिकोण में भारत के इतिहास में सम्राट अशोक अद्वितीय माने जाते है ।
सम्राट अशोक कालीन इतिहास पर पुराणों तथा ऐतिहासिक ग्रन्थों में काफी महत्वपूर्ण जानकारी को  लिपिबद्ध  किया गया हैं किन्तु सम्राट अशोक के द्वारा अभिलेखों में उनके जीवन से संबंधित सम्पूर्ण घटनाओं को लिखवाया गया और यह जानकारी स्पष्टताया एकदम प्रामाणिक प्रतीत होती है, यदि उनके अभिलेख उत्कीर्ण नहीं होते तो उनकी किर्ति और उनके आदर्शों से समस्त विश्व  रूबरू नहीं हो पाता , इसलिए उनके द्वारा लिखवाए गए शिलालेख वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है । सम्राट अशोक के बौद्ध अनुयायी होने के स्पष्ट प्रमाण हमें शाहबाजगढ़ी के तेरहवें शिलालेख से मिलता है । सम्राट अशोक ने धार्मिक क्रियाकलाप, कर्मकांड और अनुष्ठानों पर ज़ोर नहीं दिया उसने चरित्र तथा आचरण की शुद्धता और कर्म की पवित्रता पर बल दिया । सम्राट अशोक के एक लेख में उसने इंद्रिय विजय, विचारों की शुद्धता, कृतज्ञता और दृढ़भक्ति पर बल दिया है ।
विश्व के इतिहास में सम्राट अशोक की धर्मविजय का बड़ा महत्व है । अशोक के प्रत्यनों के फलस्वरूप ही बौद्ध धर्म संसार और विशेषकर एशिया की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया । धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी प्रचार हुआ । अशोक के तेरहवें शिलालेख के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने ऐसा अनुमान लगाया है कि अशोक के अधीन कुछ ऐसे प्रदेश भी थे जो अप्रत्यक्ष रूप में तो सम्राट अशोक की अधीनता स्वीकार करते थे,  किन्तु इन्हें स्वशासन का अधिकार प्राप्त था, जैसे यवन, कम्बौज, नाभक, नाभपत्ति, आंध्र, भीज तथ पारिद्र आदि प्रदेशों के लिए इतिहासकारों ने इसलिए अनुमान व्यक्त किया है कि यह प्रदेश यवन तथा कम्बौज राज्य संभवतः उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रदेश में, भोज पश्चिमी समुन्द्र तट अथवा बरार में और संभवतः कृष्णा नदी तथा गोदावरी नदियों के तटीय प्रदेश में स्थित थे । भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक के अभिलेखों का स्थान असाधारण है , सम्राट  अशोक के अभिलेखों में सम्राट का हृदय प्रतिबिम्बित होता है । दया, दान, सेवा आदि नैतिक आदर्शों के पोषक के रूप में सम्राट अशोक का सम्पूर्ण जीवन चरित्र हमारे समक्ष प्रकट होता है । शाहबाजगढ़ी का शिलालेख पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मरदान जिले में एक गाँव है, रॉक शिलालेख सांस्कृतिक श्रेणी में 30 जनवरी, 2004 को यूनेस्को की विश्व विरासत अंतरिम सूची में जोड़ा गया ।

शाहबाजगढ़ी अभिलेख :-
सम्राट अशोक के मिले सम्पूर्ण ऐतिहासिक अभिलेखों, साक्ष्यों से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी हमारे समक्ष उजागर होती है । इन शिलालेखों, स्तम्भलेखों तथा गुहालेखों पर अंकित ब्राह्मी लिपि थी, इससे हमें पता चलता है कि लिपि का वर्णनात्मक स्वरूप में आया तो सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि अस्तित्व में आई और ब्राह्मी लिपि ही सभी भारतीय लिपियों की जननी हैं । ब्राह्मी लिपि को सर्वप्रथम पढ़ने का श्रेय अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स प्रिंसेप को जाता है । जिन्होंने 1837 में ब्राह्मी लिपि के अक्षर दानं को पढ़ा तथा इसी के आधार पर उन्होंने स्वयं को महान कहा, किन्तु जब जेम्स प्रिंसेप ने सम्राट अशोक के अभिलेखों की लिपि ब्राह्मी को पढ़ा, तो इससे पता चलता है अकबर से भी महान राजा इस धरती पर हुआ । उसका नाम सम्राट अशोक हुआ, सम्राट अशोक का नाम इतिहास के पन्नो में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है । जब इन अभिलेखों को जेम्स प्रिंसेप ने पढे तो एक उनसुलझी पहेली सुलझा दी ।  
सम्राट अशोक के समय के इतिहास के लिए तेरहवाँ शिलालेख सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है । सम्राट अशोक के पूर्व वाले अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते है तो हम इनमें समानता पाते है किन्तु यह शिलालेख  एक नया विचार अभिव्यक्त करता है “ युद्ध तथा हिंसा के नाम के स्थान पर धम्म द्वारा विजय का । कलिंग युद्ध के युद्धोपरांत उस युद्ध में हुई हिंसा का उसे तुरंत उतना दुःख उसे नहीं था, क्योंकि प्रारम्भ के लेखों में इस तरह की कोई भी जानकारी हमें प्राप्त नहीं होती है, किन्तु बाद के अभिलेखों में इस युद्ध के तदोपरांत काफी पश्चाताप हुआ ऐसा इस अभिलेखों में सम्राट अशोक ने लिखवाया ।
धम्म के तात्पर्य के संदर्भ में अशोक के ब्राह्मण तथा श्रमण शब्दों के प्रयोग उल्लेखनीय है ।  इस प्रकार शाहबाजगढ़ी अभिलेख में निम्नलिखित पंक्तियाँ ख़ुदवाई गयी थी  :-

1.  सिंहासन पर बैठने के आठ वर्ष बाद देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा कलिंग जीता गया । डेढ़ लाख प्राणी वहाँ से बंदी बनाकर बाहर भेजे गए, एक लाख वहाँ मारे गए और उसके कई गुना मर गये ।

2.    तत्पश्चात अब कलिंग के विजिट होने पर देवताओं के प्रिय की रुची धर्मपालन ( धर्म की शुद्धि ), धर्मकर्म (धर्मानुराग ) और धर्मोपदेश में तीव्र हो गयी । कलिंग विजिट कर देवताओं के प्रिय को खेद है ।
3.     क्योंकि यह विजय कोई विजय नहीं है इसमें वध, मरण और निष्कासन होता है वह देवताओं के प्रिय के द्वारा अत्यंत वेदनीय और गम्भीरता से अनुभव किया गया । इससे भी अधिक  गंभीर देवना प्रिय के लिए वह है क्योंकि वहाँ
4.    ब्राह्मण, श्रमण या अन्य संप्रदाय या ग्रहस्थ रहते हैं । जिनमें अंग्रेजों की सेवा, माता-पिता की सेवा, गुरु सेवा, मित्र, परिचित, सहायक,
5.    ज्ञातिजनों तथा दस-भतकों के प्रति सदव्यवहार और दृढ़ भक्ति पाई जाती है । युद्ध में वहाँ आघात, वध और प्रियजनों का निष्कासन होता है । यही सब मनुष्यों की दशा होती है । फिर भी जो सुव्यवस्थित स्नेह वाले होते हैं उंकेन मिटे=र, परिचित और ज्ञातिजन संकट को प्राप्त होते हैं ।
6.    उनसे उनको आघात होता होता है । यही सब मनुष्यों की दशा होती है । यह देवताओं के प्रिय के मत में गंभीर है । ऐसा एक भी देश नहीं है जिसमें रहने वालों का किसी संप्रदाय में विश्वास न हो । इसलिए जितने लोग कलिंग में मारे गये, मरे व बंदी बनाकर ले जाये गये
7.    उनका सौवां भाग भी आज देवताओं के प्रिय के मत में घनित है । देवताओं के प्रिय के विचार में यदि कोई अपकार करे तो वह क्षम्य है वहाँ तक जहां तक क्षमा करना संभव है और जो आटविक प्रदेश देवताओं के प्रिय द्वारा विजित उसकेन राज्य में हैं उन्हें वह अनुनय द्वरा शांत करता, परिवर्तित करता है तथा अपनी कृपा के अतिरिक्त उन्हें दंड देने की अपनी शक्ति को बताता है ।
8.    देवताओं का प्रिय  उनसे कहता है कि वे अपने पूर्व कर्मों के लिए लज्जित हों नहीं तो नष्ट कर दिए जाएंगे । देवताओं का प्रिय सभी प्राणियों के अक्षय, संयम, सदाचरण और प्रसन्नता की इच्छा करता है । देवताओं के प्रिय के अनुसार धर्मविजय ही प्रमुख विजय है । यह विजय बार-बार देवताओं के प्रिय द्वारा यहाँ और सभी सीमांत राज्यों में
9.    आठ सौ योजन दूर स्थित अन्तियोक नामक यवन राजा और उस अन्तियोक के अतिरिक्त चार राजा - तुलमाय ( टालमी ), अन्तिकेन (अंटीगोनस गौनेटस ), मक (मेगास थियास ), अलिक सुंदर (इपिरस) और दक्षिण में चोल, पाण्ड्य, ताम्रपर्णी तक की गयी है । इस प्रकार राज्य, प्रदेशों, कम्बौज, नाभकों,
10.   भोजो, पिटेनीकों, आंध्रों तथा पुलिंदों में सर्वत्र देवताओं के प्रिय के धर्मानुशासन का पालन होता है । जिन स्थानों में देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुँचते वहाँ भी लोग देवताओं के प्रिय के धर्म का व्यवहार, विधान और धर्मानुशासन सुनकर धर्म का आचरण करते हैं और करते रहेंगे । इससे जो विजय प्राप्त होता है वह सर्वत्र पुनः
11.  प्रीति देने वाला होता है । धर्म विजय से प्राप्त प्रीति गाढ़ी होती है । पर यह प्राप्ति चोटी है क्योंकि देवताओं कक प्रिय परमार्थ को ही महाफल मानता है । इस निमित्त यह धर्मलिपि अंकित कराई गयी कि मेरे पुत्र, पौत्र जो इसको सुने वे नया विजय न करें । अगर उन्हें शास्त्र विजय करना ही पड़े तो शांति और लघुदंडता का अनुसरण कर उसमें आनंद ले । वे धर्म विजय
12.  को ही विजय माने । वही इहलौकिक और पारलौकिक सुख का कारण है । उद्यम में ही उन्हें आनंद हो क्योंकि वह  इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए कल्याणकारी होता है
इस प्रकार के आदेश सम्राट अशोक ने अपने शाहबाजगढी वाले शिलालेख में खुदवाए ।
 सम्राट अशोक के शिलालेखों का महत्व :-
अशोक के शिलालेखों का प्राचीन भारतीय इतिहास में बड़ा महत्व हैं । इनसे अशोक के जीवन और कार्यों का पूर्ण विवरण है । इन्हीं लेखों के द्वारा अशोक के मन संबंधी बातों को भी जाना गया है । इन लेखों के द्वारा अशोक के मन संबंधी बातों को पता चलता है कि कलिंग-युद्ध से पूर्व अशोक की क्या स्थिति थी? इन्हीं लेखों के माध्यम हम कलिंग युद्ध की भयंकरता और उसका अशोक पर प्रभाव, अशोक के द्वारा बौद्ध धर्म अपनाया जाना तथा उस धर्म के प्रचार के लिए अपनाए गये साधनों का पता चलता है। इतना ही नहीं अशोक ने अपनी राज्य-संबंधी नीति में क्यो परिवर्तन किये, उसका पड़ोसी और विदेशी राज्यों से कैसा संबंध था आदि बातों की जानकारी हमें उनके शिलालेखों से मिलती है । इन शिलालेखों से यूनानी राजा जो अशोक के समकालीन था, का भी विवरण मिलता है । फिर इन्हीं से उसके राज्य विस्तार का पता चलता है । इनमें से भगवान बुद्ध के जन्म स्थान और उनके जीवन से संबन्धित अन्य स्थानों का पता चलता है । इन्हीं से ही हमें अशोक के आदर्श राजा होने का ज्ञान होता है । वास्तव में अशोक की महानता उसकेन शिलालेखों से ही जानी जा सकती है।

कला की दृष्टि से भी अशोक के शिलालेख बड़े महत्वपूर्ण माने जाते है । इन लेखों को अंकित करने के लिए अनेक स्तम्भ, शिलाएँ और गुफाएँ बनाई गयी । शिलाओं, स्तंभो और गुफाओं के निर्माण से वास्तुकला आदि के विकास को बड़ा प्रोत्साहन मिला । स्तम्भों के आधार में मोरों की तथा शीर्ष पार सिंह, बैल आदि पशुओं की आकृतियाँ बनाई गयी । शिलाओं, स्तंभो और गुफाओं के निर्माण से वास्तुकला आदि पशुओं की आकृतियाँ बनायी गई । फलस्वरूप मूर्तिकला और चित्रकला की उन्नति हुई । इस प्रकार सम्राट अशोक के काल में कला के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई । इसलिए शाहबाजगढ़ी का शिलालेख अपने आप में एक श्रेष्ठ स्थान रखता है  

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