Tuesday, March 24, 2015

बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्मों में महिला का स्थान :- एक विश्लेषण



           
            विश्व पटल के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य अर्थात स्त्री और पुरुष को देखा जाए तो जनसंख्या का समानुपात दोनों का है फिर भी हमारा समाज पितृसतात्मक है, पितृसतात्मक समाज होने से स्त्रियाँ हमेशा पुरुषों के अधीन रही है  ।  जब मनुष्य श्रेष्ठ बना, तब  धर्म ने ही उन्हे श्रेष्ट बनया तथा नारी को हीन, धर्म हमारे मन में धर्मभीरुता, श्रद्धा, भय करना सिखाता है, और उसके लिए हमें कई बाध्य नही करता है, वह हमारे स्वयं के मन में उत्पन्न एक अवस्था होती है । किन्तु जब हम राज्य के विधि संचालित होते है तो वह डर  एक निश्चित समय के लिए होता है । 
            हमारा सम्पूर्ण आचरण धर्म, समाज, सभ्यता के इर्द-गिर्द घूमता है धर्म ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा कारक है जो हमारे जीवन को नियंत्रित करता है । प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा काफी खराब थी, प्राचीन भारतीय वैदिक धर्म में नारी की बुरी स्थिति का पता इस बात से लगाया जा सकता हैं । प्राचीन भारत में हम स्त्रियॉं की बात करते है तो भारत के मूलनिवासियों की सामाजिक स्थिती बहुत अच्छी थी और उसमें स्त्रियॉं की दशा काफी उन्नत थी हमारे समाज में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी । किन्तु आर्यों के आक्रमण के पश्चात लोगों को गुलाम बना दिया गया । और उनके ऊपर दासता का बोझ लाद दिया गया । इसमें जिस तरह यहाँ के मूलनिवासीयों को गुलाम बनाया गया वैसे ही यहाँ की महिलाओं को गुलामों की तरह जीवन जीने पर मजबूर कर दिया गया । किन्तु वर्तमान समय में वैदिको की पीड़ियाँ यह तर्क देते हैं कि वैदिक काल में स्त्रियॉं को पढ़ने का अधिकार था जैसे गार्गी, मैत्रेयी आदि । किन्तु यह उदाहरण जो महिलाओं के वैदिक ग्रन्थों में मिलते है ये महिलाएं संभवत जिस ऊंच-नीच, जाति आधारित समाज को बनाया ब्राह्मण समाज की रही होगी, क्योंकि उस समय पढ़ने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों ने अपने पास रखा था । वैदिक काल में स्त्रियॉं के अधिकारों में कमी आ गयी थी । इस काल में सभी स्त्रियॉं के अधिकारों में कमी आ गयी थी, इस काल में उनको संपति के अधिकार से वंचित तो किया ही गया और इस के साथ स्त्री अपने पिता की पितृदाय वस्तु की अधिकारिणी भी नहीं हो सकती थी, उस स्त्री के साथ अगर कुछ गलत हुआ है तो वह संपति उसके पति या पिता की हो जाती थी, इस काल में कन्या का जन्म दुःखकर माना जाता था और इसके साथ इस काल में बहुविवाह का प्रचलन हो गया था ।
            वैदिक पूजा-पाठ में इंद्रिय-लोलुपता का विशेष स्थान था वेदिकों को श्रेष्ठ देवता मद्यपान एवं बड़ा व्यभिचारी था, वेदिक अनुष्ठानों में एक यज्ञ होता था, जिसमें लैंगिक प्रकिया की पूजा होती थी जिसमें ही बाद में में महादेव पूजा के नाम से पुरुष लिंग को मान्यता दी । वैदिक काल में स्त्रियोंको नीची नज़रों से देखा जाने लगा था इस बात का स्पष्ट प्रमाण हमें “ अनभिरती जातक में मिलता है कि स्त्रियाँ पानी की प्याऊ की तरह सभी के उपभोग करने  की वस्तु हैं । वैदिक धर्मशास्त्रों ने स्त्री को इस प्रकार स्थान दिया है कि स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती है, कौमारवस्था में उसका पिता उसकी रक्षा में, यौवन में पति की और वृद्धावस्था में पुत्रों की रक्षा में रहना उचित बताया हैं । यदि पति ने केवल कन्याएँ उत्पन्न की है या पतिभक्ति के विरुद्ध आचरण किया है तो उसका पति उसको त्याग सकता है । 
 अनुशासन पर्व में एक बात स्पष्ट है विदेह नरेश जनक की पौत्री सुकृति का कहना है “ कि धर्मग्रंथों का यह फतवा प्रसिद्ध है कि जीवन के किसी भी क्षेत्रों में स्त्रियाँ स्वतन्त्रता का उपयोग करने के लिए नहीं है । उच्चकुलोत्पन हो और सौंदर्ययुक्त भी हो तब भी स्त्रियाँ अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए तत्पर रहती है । एक स्त्री से बदकार कोई दूसरी पापिन नहीं है, इस तरह की बातों का वर्णन वैदिक धर्म ग्रन्थों में वर्णन मिलता हैं ।
इसके पश्चात जैन धर्म ग्रन्थों के आधार पर जैन धर्म में स्त्री की स्थिति का वर्णन करते है । जैन धर्मशास्त्र योगशास्त्र में यह वर्णन मिलता है कि स्त्रियाँ नरक की और जाने वाली सड़क पर जलने वाले प्रदीप हैं ।
 फिर दूसरे ग्रंथ उत्तराध्ययन सुत्त के अनुसार स्त्रियाँ वे राक्षसनियां है जिनकी छाती पर मांस के दो ढेर उगे होते है जो लगातार आदमियों को निरंतर अपने जाल में फँसा लेती हैं । और इसके बाद वे उनके साथ ऐसा खिलवाड़ करती है जैसे वे उनके गुलाम हो ।
ईसाई धर्म  में स्त्री को लेकर यह विचार है कि एक फ्रांसीसी ईसाई-पादरी के “पवित्र धार्मिक मार्ग-दर्शिका ” में लिखा है, स्त्री क्या है ? संत जेरोम का उत्तर था वह शैतान का प्रवेश द्वार है वह पाप की और ले जाने वाली सड़क है । वह बिच्छू का डंक है । अन्यत्र एक दूसरे स्थान पर संत जेरोम ने कहा है की स्त्री आग, पुरुष रस्सी और शैतान फ़ौकनी हैं ।”
संत मैक्सिमस ने स्त्री के बारे में यह कहा है कि वह आदमियों को उजाड़ देता है वह एक हत्यारी है जो आदमियों को गुलाम बना देती है । वह एक शेरनी है जो अपनी छाती से लिपटा देती है वह एक जलपरी है जो आदमी को विनाशोंन्मुख ले जाती है वह एक दुष्ट विकृत पशु है ।
इस्लाम धर्म में भी स्त्री की स्थिति भी कोई विशेष ठीक नहीं है है क्योंकि उनको प्रसिद्ध पवित्र मस्जिद में जाने की मनाही होती हैं । इस्लाम धर्म में एक पुरुष को धर्मसम्मत बताकर बहुविवाह करने की आजादी दी जाती है । उनका दायरा सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित था । वर्तमान समय में इस्लाम धर्म में यह प्रथा मौजूद है कि स्त्रियों का खतना किया जाता है । जिससे उस महिला को सारी उम्र समस्या का निर्माण होता है ।
समाज में महिलाओं को लेकर जितनी भी अराजकता बड़ रही है उसकी कही न कही शुरुआत बचपन में मिलने वाले संस्कारों से होती है, और संस्कार धर्म के ऊपर निर्भर करते है । बचपन से स्त्री और पुरुष को लेकर ही  माता-पिता बच्चों में सही संस्कारों की निर्मिति करें तो वर्तमान का जो असंतोष स्त्री को लेकर है वह नहीं होगा ।
स्त्री का उसके शरीर के आधार पर शोषण किया जाता रहा है और वर्तमान में भी हो रहा है शोषण में प्रथमतया भ्रूण में ही नष्ट कर दिया जाता है और असमय जन्म लेने पर सड़क पर या कचरा पात्र में फेंक दिया जाता है तथा वयस्क होने पर सिर्फ लड़की होने के कारण जीवन के हर मोड़ पर उलाहना सहनी पड़ती है । स्त्री देह व्यापार यह वर्तमान समय में मानवीय जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी हैं । वर्तमान समय में किए गए शोधों के माध्यम से पता चलता है कि भारत देश में हर तीन मिनट में एक बच्चे का अपहरण कर लिया जाता है जिसमें लड़कियों की संख्या ज्यादा होती हैं ।
बौद्ध धर्म में स्त्री को स्थान :-
भगवान बुद्ध द्वारा प्रदत्त धम्म का प्रचार-प्रसार वैश्विक स्तर पर हुआ और इसका मूल कारण इसी में निहित था कि उनके धम्म में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं था । सभी लोगों के लिए धम्म में जाने के लिए सदैव खुला था । कोई भी व्यक्ति धम्म में प्रवजित हो सकता था , किन्तु इस समय समाज इतने बुरे दौर से गुजर रहा था कि स्त्रियों को दासता का जीवन निर्वहन करना पद रहा था  जब बौद्ध संघ की निर्मिति हुई उसके थोड़े समय पश्चात माता महाप्रजापति गौतमी ने स्त्रियों के लिए प्रवजित होकर भिक्षुणी जीवन के लिए भगवान बुद्ध से याचना की तथा आनंद की अध्यक्षता में प्रथम भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई, तत्पश्चात महाप्रजापति गौतमी प्रथम बौद्ध संघ में प्रवजित होने वाली पहली महिला थी । और जिन भिक्षुणीयों ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात उनके पूर्व एवं बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात के अनुभवों एवं उद्गारों को बौद्ध धर्म की साहित्यक कृतियों में स्थान दिया है उस प्रसिद्ध कृति का नाम थेरीगाथा है । थेरीगाथा को खुद्द्क-निकाय के 15 ग्रन्थों में स्थान दिया है । थेरीगाथा में 73 भिक्षुणीयों के 522 गाथाओं को जो उन भिक्षुणियों ने प्रकट किया है ।
जीवन की विषमताओं पर अपनी विजय का ही वे गान करती है ।“ विष अमिरत करि ढ़ारा ” । विजय प्राप्ति की अवस्था में उनका यह उद्गार फूट पड़ता है, “ अहो ! मैं बुद्ध की  कन्या हूँ । ” उनके मन और हृदय से उत्पन्न ।
नारी जीवन को भगवान बुद्ध की अनुकंपा का कितना बड़ा भाग मिला था । बौद्ध धर्म की भिक्षुणी स्त्रीत्व को सत्य प्राप्ति में बाधक नहीं मानती । उनमें से एक भिक्षुणी के उद्गार दृष्टव्य हैं ।
“ इत्थी भावो नो किं कयिरा, चित्तम्हि सुसमाहिते ।
आणम्हि वत्तमानम्हि, सम्मा धम्म विपस्सतों ।।
 “ जब चित्त अच्छी तरह समाधि में स्थित है, ज्ञान नित्या विद्यमान है और अंतज्ञानपूर्वक धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है , तो स्त्रीत्व इसमें हमारा क्या करेगा ? ।।
इस प्रकार से सम्पूर्ण थेरीगाथा में भिक्षुणियों के उद्गार हैं । जो इस प्रकार हैं ।
अड्ड्काशी :- अड्ड्काशी का वाराणसी के वैभव सम्पन्न सेठ परिवार में हुआ , किन्तु किसी अपराध की निर्मिति होने से राजगृह में जाकर वैश्या हो गई । एक दिन भगवान बुद्ध के उपदेश सुनकर वह बौद्ध धर्म में प्रवजित हो गयी । बौद्ध धर्म में प्रवजित होने के पश्चात अर्थात भिक्षुणी होने के पश्चात उसके उद्गार  निम्न है ।
जितनी समस्त काशी-राज्य की एक दिन की आय है, उतना ही मेरा एक रात का शुल्क था, उतना ही मूल्य उससे कम नहीं, निगम के द्वारा मेरी सेवाओं के लिए पारिश्रमिक स्वरूप निश्चित था ।
किन्तु ऐसा वह अड्ड्काशी कह रही है कि वह सौंदर्य ही आज मेरे लिए घृणा का कारण हुआ ।
इसी प्रकार विमला भिक्षुणी  वह भी  वैशाली में पैदा हुई गणिका थी । वह भी एक वैश्या की पुत्री थी । एक दिन उस विमला ने महामौगल्यायन को देखा, तो वह विमला थेरी उनके रूप सौंदर्य पर मोहित हो गयी,  तथा अपने रूप  से स्थविर को लुभाने की चेष्टा की, स्थविर ने इसके लिए फटकारते हुए धर्मोपदेश दिया । भिक्षुणी बनने के पश्चात विमला थेरी पूर्व जीवन का वर्णन करती हुई कहती है तथा भिक्षुणी जीवन में निर्वाण पद की अनुगामी बनकर उस श्रेष्ठ पद को वह प्राप्त करती है । इसी प्रकार  सोणा थेरी के उद्गार हमें मिलते है वह कहती है कि रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार और विज्ञान के मिलन-क्षेत्र के इस शरीर में, मैंने दस पुत्रों को जन्म दिया । फिर दुर्बल एवं जीर्ण होकर  एक भिक्षुणी  के पास गई । उसने मुझे स्कन्ध, आयतन और धातुओं का उपदेश दिया । इसके पश्चात सोणा थेरी ने निर्वाण पद प्राप्त किया । आगे हमें थेरी गाथा में पटाचारा थेरी का वर्णन मिलता है, पटाचारा थेरी का भी गृहस्थ जीवन दुःखमय था, गृहस्थ जीवन के दुःख प्रपंचों कष्टों से वह गुजरी थी, संघ में प्रविष्ट होने के पश्चात जीवन की सही सच्चाई से वह परिचित हुई और निर्वाण पद की अनुगामी बनी ।

इस प्रकार सम्पूर्ण थेरीगाथा में भिक्षुणियों ने अपने पूर्व जीवन के कटु एवं दर्दनाक घटनाओं का विवरण दिया है तथा भिक्षुणी जीवन को ग्रहण करते ही वे जीवन में जो कुछ सत्य है उस सत्य को स्वीकार किया तथा अपनी मन की समस्त तृष्णाओं पर पूरी तरह नियंत्रण किया । सम्पूर्ण बौद्ध शिक्षाएँ मानव जाति के हित में ही है उन्हें बस करने की जरूरत है तो वह है अपने जीवन में उतारने की ।

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