Monday, March 23, 2015

बौद्ध धर्म और अहिंसा का स्वरूप :- एक स्वरूप

बौद्ध धर्म और अहिंसा :- एक विश्लेषण

सम्पूर्ण जगत में हमें अगर शांति स्थापित करनी है या अमन चैन कायम करना हो तो उसमें हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन कर सकते हैं । अहिंसा का सामान्य अर्थ है “ हिंसा न करना  ” । इसका व्यापक अर्थ हैं – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुंचाना । मन में किसी का अहित ना सोचना किसी को कटु वाणी के द्वारा भी नुकसान न पहुंचाना । कर्म से भी किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ।
शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती हैं । ऐसी हिंसा का न होना अहिंसा कहलाती है । अहिंसा के 3 रूप है जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है, वाणी से कष्ट न करना वाचिक अहिंसा है । तथा किसी का मन से बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है, हमें मनसा, कर्माणा तथा वाचा तीनों रूप की हिंसा से बचना चाहिए । आज के समय में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने से लिया जाता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ती है । अहिंसा को परमधर्म भी कहा जाता है इसमें मन के सभी वैर, भय और आशंकाएं दूर हो जाती है । भगवान बुद्ध के समय समाज में जिस तरह की परिस्थितियां थी वे बहुत भयावह थी, बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव से पूर्व अर्थात ऋग्वेदयुगीन भारत में हिंसा का स्वरूप ज़ोरों से था, प्राचीन वैदिक युगीन पंडितों ने आडंबरवाद, पोंगापंडितवाद, यज्ञ, निरीह जानवरों की हत्या आदि कई शर्मनाक बातों को स्थान दिया, प्राचीन वेदों में यह बताकर जानवरों की हत्या, नरबलि  आदि  दी जाती थी की यह सब देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए दी जाती है । इस तरह का शोषण प्राचीन समय में  किया जाता था । इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह कोरी काल्पनिक, मिथ्या बात हमें प्रतीत होती है । हिंसा के नाम पर वैदिक ब्राह्मण, यज्ञ का आयोजन करते समय जंगलों से कई तरह के पेड़ों को कट देते थे । पूर्ववैदिक युग कि साधना यज्ञ-विधानात्मक थी, यह सुविदित है । यज्ञ का स्वरूप क्या है, अक्सर प्रचलित आधुनिक दृष्टि के अनुसार आदिम युग के धर्मों में यज्ञ बलिदान और जादुई अनुष्ठान का समवेत रूप था । देवता को मनुष्यवत मानकर उसे प्रसन्न करने के लिए बलिदान दिया जात आता और उसके अनुष्ठान में जादुई शक्ति मनी जाती थी । वैदिक-यज्ञ में बलि गोरस, अनाज से बने अन्न, सोम अथवा पशु की हो सकती थी और उसे अग्नि में डालकर देवता को अर्पित किया जाता था ।   इसी प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा सम्पन्न किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ में अश्व को स्त्री के संभोग करवाया जाता था इसमें असहनीय पीडा उस स्त्री को होती थी उस पीड़ा में कई बार तो स्त्रियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी, उनके यज्ञ करने से जो धुआँ निकलता था उससे हजारों जीव-जन्तु भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे, इस प्रकार प्राचीन समय में हिंसा के प्रति-रूप मौजूद थे, बलहीन, आधारहीन  मनुष्यों के ऊपर भी शास्त्रसम्मत बनाकर हिंसा की जाती थी जिसका साक्ष्य हमें ऋग्वेद के दशम मण्डल  पुरुषसूक्त  के  सुत्त में  मिलता है, इन सूक्तों की भाषा छांदश भाषा थी :-
                        ब्राह्मण उसका मुख था, बाहें राजन्य बनीं ।
                                    उरु उसके वैश्य, पैरों से शूद्र जन्मा ।। 12 ।।
इस प्रकार की ऋचाओं को स्थायित्व रूप प्रदान करके कमजोर और बेसहारा लोगों के ऊपर हिंसा को अवतरित किया गया । इसमें  ब्राह्मण को ब्रह्म के मुख से, क्षत्रिय को उसके भुजाओं से, वैश्य को उसकी जंघाओं से, तथा इन सब की सेवा करने के लिए शूद्र का जन्म पैरों से हुआ, ऐसा वेदों में वर्णन मिलता हैं । हिंसा को इस प्रकार वैदिक धर्म में धर्मसम्म्त बना दिया गया, शूद्रों के साथ  अत्याचार और हिंसा को भी स्थायित्व प्रदान किया गया । जिस प्रकार प्राचीन समय में कई प्रकार की  हिंसा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दी जाती थी वर्तमान समय में हमें कई प्रकार के उदाहरण मिलते है, जैसे नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में और गुवाहाटी के कामाख्या देवी मंदिर में हजारों बेगुनाह निरीह बेजुबान जानवरों की निर्मम एवं बर्बर  तरीके से हत्या कर दी जाती हैं।
इसी प्रकार विश्व के अन्य धर्मों में भी जीव-हत्या की जाती है वे सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के नित्य-प्रतिदिन पशुओं की हत्या करते है और वे इसे अपने धर्म-ग्रन्थों से जोड़ते है और तर्क देते है कि ऐसा हमारे धर्म में लिखा गया हैं ।
बौद्ध धर्म में अहिंसा का स्वरूप :-
 भगवान बुद्ध अपने प्रारम्भिक उपदेशों में यह बात स्पष्ट करते है कि व्यक्ति कोई भी कर्म चाहें वह अच्छा हो या बुरा हो वह कर्म उस मनुष्य की तृष्णा का परिणाम होता है । बौद्ध धर्म में बताया गया है हमारे मन में अच्छे संकल्प होने चाहिए, हमारे कर्म सम्यक होने चाहिए किसी दूसरे व्यक्ति को उनसे कोई कष्ट नहीं होना चाहिए । तथा इसी के साथ हमारी वाणी भी सम्यक होनी चाहिए उसे सुनकर किसी दूसरे मनुष्य को कष्ट नहीं होना चाहिए । बौद्ध धर्म के अनुसार बुरा सोचना या मन में किसी के लिए द्वेष रखना किए गए कर्म से घातक होता है । बुरा सोचना भी एक प्रकार की हिंसा का एक प्रतिरूप हैं । इस प्रकार मन का उदाहरण हमें धम्मपद में मिलता है ।
                        मनोपुब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया
                        मनसा च पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा
                        ततो न दुःखमन्वेति, चक्क व वहतों पद ।। 1 ।।
                       
                        मनोपुब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया
                        मनसा च पसन्नेंन, भासति वा करोति वा
                        ततो च सुखमन्वेति, छाया व अनपायिनी ।। 2 ।।
इस प्रकार धम्मपद की गाथाओं से यह स्पष्ट होता है कि जो मनुष्य दूषित मन से जो कुछ भी बोलता है या करता है मनःकर्म, वाचकर्म तथा कायकर्म से भी कुछ गलत कार्य करता है उन अकुशल कर्मों से उत्पन्न दुःख उस मनुष्य का उसी तरह पीछा करता है, जैसे किसी बैलगाड़ी का पहिया गाड़ी में जूते हुए बैलों के पैरों का पीछा करता हैं ।
इसी प्रकार कुशल कर्मों से उत्तपन सुख उसका उसी प्रकार पीछा करता रहता है, जैसे निरंतर साथ रहने वाली मनुष्य की छाया उसका पीछा किया करती है  । इस प्रकार बौद्ध धर्म का पवित्र ग्रंथ इस बात की शिक्षा से प्रारम्भ होता है कि व्यक्ति अकुशल कार्यों को अपने मन में उत्पन्न होने पर ही सम्पन्न करता है ।   
 इसी प्रकार बौद्ध धर्म में अहिंसा के प्रतिरूप को लेकर सम्पूर्ण बौद्ध धर्म में हिंसा को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया हैं । त्रिपिटक में   दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त  में अहिंसा के स्पष्ट किया गया हैं ।
इसमें भगवान बुद्ध ने श्रमण गौतमको दूसरे संप्रदायों के ब्राह्मणों से अलग रखा है । भगवान बुद्ध बताते है कि श्रमण गौतमकिसी बीज या प्राणी के नाश से विरत रहते है । कच्चे अन्न ग्रहण से विरत रहते है तथा कच्चे माँस के ग्रहण से विरत रहते है इसी प्रकार भगवान कहते है कि कितने ब्राह्मण (ग्रहस्थों के द्वारा ) श्रद्धापूर्वक दिये गए भोजन खाकर इस प्रकार के सभी बीजों और सभी प्राणी के नाश में लगे रहते हैं । जैसे मूल बीज (जिनका उगना  मूलबीज से होता है, स्कन्धबीज ( जिनका प्ररोह गांठ से होता है, जैसे- ईख ) फलबीज और पांचवा अग्रबीज ( ऊपर से उगता पौधा) इस प्रकार श्रमण गौतम बीज और प्राणी का नाश नहीं करते ।
इसी प्रकार अहिंसा को लेकर भगवान बुद्ध ने जो बौद्ध धर्म का संविधान है उसमें अहिंसा को स्पष्ट किया जो इस प्रकार हैं ।
विनय पिटक के अंतर्गत कई सारे नियमों का संकलन किया गया है जिनमें पाराजिक के अंतर्गत मनुष्य हत्या का नियम है । इस नियम के अंतर्गत जो भिक्खु मनुष्य को प्राण से मारे या स्व-हत्या  के लिए हथियार खोज लाए, या चित्त संकल्प से अनेक प्रकार से मरने की जो  तारीफ करें, या मरने के लिए प्रेरित करें तो  वह भिक्षु पाराजिक का दोषी होता है, वह भिक्षु अन्य भिक्षुओं के साथ सहवास करने के अयोग्य होता है ।
दूसरे नियम के अंतर्गत संघादिसेस आता है इसमें आवास को लेकर नियम है कि हमें हमारे आवास ऐसे जगह व इस प्रकार उनकी निर्मिती करनी चाहिए जिसमें जीव हिंसा न हो ।
अहिंसा को स्पष्ट करते हुए अगले नियम पाचित्तिय में भगवान बुद्ध स्पष्ट करते है कि जो भिक्षु जमीन खोदता है या खुदवाता है उस जमीन को  खोदने पर उसमें कई जीवों की अकाल मृत्यु हो जाती है । (10)
तृण, वृक्ष आदि के गिराने में पाचित्तिय का दोष लगता है, क्योंकि उन पेड़-पौधो के नीचे गिरने से उन में रहने वाले जीव, पशु, पक्षियों का जीवन इस प्रकार नष्ट हो जाता है इसलिए जो भिक्षु इस प्रकार के कार्य करता है उसको पाचित्तिय का दोष लगता हैं । (11)
आगे भगवान बुद्ध अपनी शिक्षाओं को भिक्षुओं के लिए नियमस्वरूप वर्णित करते है कि हरी घास पर खड़ा होना पाचित्तिय का दोषी होता हैं । क्योंकि उस हरी घास पर खड़े होने से उस घास में रहने वाले काफी असंख्य जीव मर जाते हैं । (19)
आगे भगवान बुद्ध कहते है कि जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी सहित पानी से, तृण (घास) या मिट्टी को सींचे या सिंचवाए, उसे पाचित्तिय का दोष लगता हैं । क्योंकि ऐसा करने से उस जमीन में रहने वाले जीव उसमें दबकर मर जाते है । (53)
जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी एवं जीव को मारे, तो उसे पाचित्तिय है । इस प्रकार यह हिंसा को नियंत्रित करने के लिए भगवान बुद्ध द्वारा बनाया गया नियम था । (61)
इस प्रकार पाचित्तिय के अंत में कोई बौद्ध भिक्षु जानकार प्राणी युक्त जल को पीए तो उसे पाचित्तिय  है । इस प्रकार वह भिक्षु जाने अनजाने में हिंसा करता है इसलिए भगवान बुद्ध ने पाचित्तिय का नियम बनाया । (62)

इस प्रकार आगे सेखीय में अहिंसा का प्रतिरूप देखने को मिलता है जो इस प्रकार है :-
निरोग रहते खड़े-खड़े पिसाब-पाखाना नहीं करना चाहिए इससे हरियाली को नुकसान पहुंचता है तथा उसमें रहने वाले जीवों को अकाल मृत्यु का शिकार होना पड़ता हैं । (73)
निरोग रहते हुए पानी में पिसाब-पाखाना नहीं त्यागना चाहिए इस प्रकार का आचरण करने पर वह भिक्षु सेखीय का दोषी होता है । इस प्रकार भगवान बुद्ध ने अहिंसा को लेकर भिक्षुओं और उपासकों के लिए नियम बनाए । जिससे समाज में एक नई क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ और जो समाज अपनी मुक्ति के लिए वर्षों से छट-पटा रहा था, और उस समाज को भगवान बुद्ध ने जीने का नया आधार प्रदान किया । इस प्रकार विनय-पिटक  में महावग्ग में भी अहिंसा का पालन करने के नियमों का वर्णन मिलता है , जो इस प्रकार है :-
सिंह, व्याघ्र, चीते के चर्म को अपने शरीर पर धरण करने का भगवान बुद्ध ने निषेध किया है जो इस प्रकार उस चर्म को धारण करने का अपराध करता है वह भिक्षु दुक्कट का दोषी होता है ।
आगे वर्णन मिलता है कि मनुष्य का माँस नहीं खाना चाहिए ( लोग अकाल के कारण हाथी, घोडा, साँप, कुत्ता, भालू, सिंह, बाघ, लकड़बग्घा का माँस खाते थे) किन्तु इस तरह के जीव जंतुओं के माँस का निषेध भगवान बुद्ध ने किया ।
जानबूझकर  अपने प्राणों के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के प्राणों को लेना , यह कार्य भी भिक्षु नियम सहिंता के विपरीत आचरण हैं ।
 भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही मांस खाने की मनाही की थी किंतु कई लोग भी उन पर यह आक्षेप लगाते है की भगवान ने अपने अंतिम समय मे चुंद लुहार के घर मांस खाया था किंतु यह बात पूरी तरह बौद्ध धर्म पर कालिख पोतने जैसी है, क्योंकि पहली बात भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही जीव हत्या प्राणी ह्त्या का विरोध किया, तथा उसे अपने धर्म मे कोई स्थान नही दिया।   
           बौद्ध धर्म मे भिक्षावृति के रूप मे तीन घर का नियम है। अगर आपको पहले घर में मांस दूसरे में भी मांस एवं तीसरे घर  मे भी मांस मिलता है, और आपको पता नही है तो खा सकते है किंतु जानबूझकर पता होने बाद मांस ग्रहण करते है तो आपको त्रिकोटिपरिशुद्धि  का नियम लगेगा ।                         
            इसी प्रकार भगवान बुद्ध चुंद लुहार के घर जाते है तो चुन्द लुहार उन्हें  “ सुकरमद्दव ” नामक वनस्पति खाने के लिए परोसता है, तो सुकर मद्दव एक तरह की पानी मे उगने वाली वनस्पति होती है, क्योंकि उस समय भगवान बुद्ध वृद्ध  हो गए थे इसलिए उनको चुंद ने कोमल वनस्पति को बनाया, उसको ग्रहण करते ही भगवान ने कहा हे चुंद ! यह बहुत कड़वी है अतः इसे जमीन मे गाढ़  दो,  इस  प्रकार सिद्ध होता है कि सुकरमद्दव एक प्रकार की जंगली वनस्पति थी ।  अगर यह  सूअर का मांस होता तो पालि परंपरा में मांस शब्द के लिए मंस शब्द आया है तो स्पष्ट है की यहाँ पर सुकर मंस शब्द प्रयोग करने मे अतिशयोक्ति न होती ।    
                          इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस प्रकार से हिंसा को वैदिक धर्म ग्रंथो मे स्थान दिया गया । उसी प्रकार बौद्ध धर्म में  भगवान बुद्ध ने  अहिंसा की शिक्षा को  सम्पूर्ण बताया । सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में  अहिंसा का हमें वर्णन मिलता है इसलिए  वर्तमान समय में अन्य धर्मो के ग्रंथो को ध्यान में रखते हुये बौद्ध धर्म ग्रंथो की शिक्षा को समाज में फैलाने की जरूरत है तभी आज का मनुष्य सही मायने में प्रगति करेगा। बौद्ध धर्म सभी कष्टों का निवारण दाता है ।                





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